ईरान और इजराइल… मिडिल ईस्ट की दो बड़ी ताकतें, दो ध्रुव जो कट्टर दुश्मन बन चुके हैं, मगर एक दौर ऐसा भी था जब दोनों के बीच जय-वीरु से भी तगड़ी दोस्ती थी. इन दोनों देशों के बीच सिर्फ डिप्लोमेट रिलेशन ही नहीं थे, बल्कि दोनों देश अपनी सैन्य और खुफिया जानकारी भी एक दूसरे से साझा करते थे. मिडिल ईस्ट में कुछ देश ऐसे थे जिन पर ईरान और इजराइल एक साथ धावा बोलते थे. आपको जानकर हैरानी होगी, मगर ये दोस्ती इतनी गहरी थी कि दोनों देश एक साझा मिसाइल प्रोग्राम पर एक साथ काम कर रहे थे.
मिडिल ईस्ट की दो बड़ी ताकतें अब एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहातीं. पिछले 45 साल से दोनों देशों में कड़वाहट इतनी बढ़ चुकी है आए दिन दोनों देश एक-दूसरे के सामने आ जाते हैं. पिछले चार दिनों से मिडिल ईस्ट में यही चल रहा है. ईरान लगातार तेल अवीव को निशाना बना रहा है तो इजराइल तेहरान पर गुस्सा निकाल रहा है. सिर्फ मिडिल ईस्ट ही नहीं खुद को महाशक्ति कहने वाले अमेरिका, रूस और चीन भी बस इस युद्ध के तमाशबीन बनकर रह गए हैं. जिद पर अड़े ये दोनों देश एक दूसरे को तबाह करने पर उतारू हैं, लेकिन क्यों? आखिर कैसे इनकी दोस्ती दुश्मनी में बदली इसकी कहानी जानने की कोशिश करते हैं.
इजराइल और ईरान की दोस्ती की नींव
इजराइल की स्थापना 1948 में हुई थी. इससे पहले यह अंग्रेजों के अधीन था. जब 1947 में संयुक्त राष्ट्र ने इसे यहूदी और अरब देशों में बांटने की योजना बनाई तो यहूदी तो तैयार हो गए लेकिन अरबों ने विरोध किया. 1948 में स्थापना के तुरंत बाद अरब देशों ने इस पर हमला किया, इजराइल ने युद्ध जीता. अब तक इजराइल के पास अमेरिका, सोवियत संघ की मान्यता थी, मगर अरब देश तैयार नहीं थे.
ईरान में उस समय रजा शाह पहलवी के बेटे रजा पहलवी शाह थे, उन्होंने ईरान को एक सेक्युलर और पश्चिमी सभ्यता वाला राष्ट्र बना रखा था. 1950 में इस दोस्ती की नींव पड़ी जब ईरान ने इजराइल को व्यावहारिक रूप से मान्यता दी, हालांकि अरब देशों के विरोध के चलते वह औपचारिक तौर पर मान्यता नहीं दे सका. इजराइल ने इसे एक साहसी कदम माना, क्योंकि व्यावहारिक मान्यता से भी ईरान के अरब देशों के साथ रिश्ते खराब हो सकते थे.
ईरान के साथ आगे बढ़ा इजराइल
इजराइल को मिडिल ईस्ट के एक बड़े सहारे की जरूरत थी, ईरान से सपोर्ट मिला तो इजराइल ने गैर अरब देशों से दोस्ती बढ़ाई. ईरान इनमें पहला था, तुर्की और इथियोपिया का भी साथ मिला. इस गठबंधन का मकसद अरब राष्ट्रों को घेरना था. मिस्र, इराक और सीरिया जैसे देश जब भी इजराइल के खिलाफ बोलते तो यहूदी राष्ट्र को ईरान का भरपूर साथ मिलता. 1950 में दोनों देशों ने राजनयिक संबंध स्थापित किए और एक दूसरे के देश के दूतावास भी खोले.
रक्षा और खुफिया सहयोग
इजराइल और ईरान की दोस्ती परवान चढ़ रही थी, यह इस हद तक थी कि उस दौरान में ईरान की खुफिया एजेंसी SAVAK और इजराइल की खुफिया एजेंसी Mossad तालमेल के साथ काम करते थे. मोसाद ने शुरुआती दौर में SAVAK के एजेंटों को ट्रेनिंग भी दीं. 972mag की एक रिपोर्ट के मुताबिक उस समय ईरानी सैनिक इजराइल में सब मशीनगनों और अन्य हथियारों का प्रशिक्षण लेने के लिए जाते थे. यह रक्षा साझेदारी इतनी बड़ी थी कि इजराइल और SAVAK में मिलकर ईरान और ईराक संघर्ष के दौरान कुर्दों की सहायता की थी, जिससे इराक कमजोर हुआ था. लेखक रोनन बर्गमेन की किताब CIA and the Mossad: The Secret Alliance में इसका जिक्र है.
ईरान को मारने के लिए इजराइल ने सीरिया और इराक का एयर स्पेस इस्तेमाल किया
आर्थिक साझेदारी
ईरान के पास तेल था और इजराइल को इसकी जरूरत थी. 1960 के दशक में इजराइल में ईरान से तेल की नियमित आपूर्ति होती थी. Eilat-Ashkelon Pipeline में ईरान ने निवेश किया था, इसी से इजराइल तक तेल जाता था. इसके बदले में इजराइल ने ईरान को कृषि, सिंचाई और हथियारों की तकनीक दी. इज़राइल के विदेश मंत्रालय की वेबसाइट और सार्वजनिक दस्तावेजों में इसकी पुष्टि की गई है.
साथ शुरू किया था प्रोजेक्ट फ्लॉवर मिसाइल प्रोग्राम
ईरान ओर इजराइल ने ज्वाइंट मिसाइल प्रोग्राम प्रोजेक्ट फ्लॉवर भी शुरू किया था. 1977 में शुरू इस प्रोग्राम का उद्देश्य परमाणु समर्थित सबमरीन मिसाइल विकसित करना था. इसके लिए दोनों देशों में समझौता हुआ था.खास बात ये है कि इस समझौते को अमेरिका से छिपाकर रखा गया था.मिसाइल असेंबली संयंत्र भी स्थापित किए गए थे. 1979 में शाह सल्तनत का अंत होते ही इस परियोजना को रद्द कर दिया गया था. उस समय तक तेहरान में तकरीबन 500 यहूदी परिवार रहते थे और इजराइल और ईरान के बीच नियमित उड़ानें थीं.
इजराइल ईरान युद्ध की तस्वीरें
फिर कैसे ‘शैतान’ बना इजराइल
1979 में इजराइल में इस्लामिक क्रांति आई और शाह को पद से हटा दिया गया. इसके बाद इजराइल और ईरान की दोस्ती टूट गई और रिश्ते में कड़वाहट आ गई. ईरान एक इस्लामिक देश बना और इजराइल को ‘शैतान’ की संज्ञा दी गई. यह दुश्मनी इतनी बढ़ी की ईरान अपना नंबर 1 दुश्मन इजराइल को मानने लगा. फिलिस्तीन मुद्दे पर दोनों देश लगातार आमने सामने रहे. ईरान ने हिजबुल्लाह, हमास जैसे संगठनों का समर्थन शुरू किया. इजराइल भी ईरान को अपने लिए सीधा खतरा मानने लगा.